संत रविदास जी के अनमोल वचन : ” मन चंगा तो कठौती में गंगा ” कहने वाले हमारे संत शिरोमणि रविदास जी, भारतीय साहित्य और धर्म के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण साधक थे। वे भगवान राम के भक्त थे और उनकी रचनाएं निर्गुण भक्ति और सामाजिक न्याय के विषय में थीं। रविदास जी का जन्म और उनके जीवन के बारे में सटीक जानकारी नहीं है, लेकिन उनका समय आमतौर पर 15वीं और 16वीं सदी के बीच माना जाता है।
रविदास जी के दोहे और पद आम लोगों के बीच लोकप्रिय हैं और उनकी रचनाएं अभी भी भजन संगीत, साहित्य और धार्मिक विचार में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। रविदास जी के उपदेशों के माध्यम से वे सामाजिक असमानता और भक्ति के माध्यम से दिव्यता के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करते थे।

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संत रविदास जी के अनमोल वचन
जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग।
मानुषता कूं खात हइ, रैदास जात कर रोग॥
अर्थात् – अज्ञानवश सभी लोग जाति−पाति के चक्कर में उलझकर रह गए हैं। रैदास कहते हैं कि यदि वे इस जातिवाद के चक्कर से नहीं निकले तो एक दिन जाति का यह रोग संपूर्ण मानवता को निगल जाएगा।

ब्राह्मण खतरी बैस सूद रैदास जनम ते नांहि।
जो चाहइ सुबरन कउ पावइ करमन मांहि॥
अर्थात् – कोई भी मनुष्य जनम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं होता। यदि कोई मनुष्य उच्च वर्ण को प्राप्त करना चाहता है तो वह केवल सुकर्म से ही उसे प्राप्त कर सकता है। सुकर्म ही मानव को ऊँचा और दुष्कर्म ही नीचा बनाता है।

रैदास हमारौ राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं।
राम हमउ मांहि रहयो, बिसब कुटंबह माहिं॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि मेरे आराध्य राम दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं। जो राम पूरे विश्व में, प्रत्येक घर−घर में समाया हुआ है, वही मेरे भीतर रमा हुआ है।

पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥
अर्थात् – हे मित्र! यह अच्छी तरह जान लो कि परीधीनता एक बड़ा पाप है। रैदास कहते हैं कि पराधीन व्यक्ति से कोई भी प्रेम नहीं करता है। सभी उससे घृणा करते हैं।

जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि किसी की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि संसार में कोई जाति−पाँति नहीं है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। यहाँ कोई जाति, बुरी जाति नहीं है।

रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय।
प्रेम न मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि प्रेम कोशिश करने पर भी छिप नहीं पाता, वह प्रकट हो ही जाता है। प्रेम का बखान वाणी द्वारा नहीं हो सकता। प्रेम को तो आँखों से निकले हुए आँसू ही व्यक्त करते हैं।

ऊँचे कुल के कारणै, ब्राह्मन कोय न होय।
जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मन सोय॥
अर्थात् – मात्र ऊँचे कुल में जन्म लेने के कारण ही कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता। जो ब्रहात्मा को जानता है, रैदास कहते हैं कि वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है।

रैदास जन्मे कउ हरस का, मरने कउ का सोक।
बाजीगर के खेल कूं, समझत नाहीं लोक॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि जन्म के समय कैसा हर्ष और मृत्यु पर कैसा दुःख! यह तो ईश्वर की लीला है। संसार इसे नहीं समझ पाता। जिस प्रकार लोग बाज़ीगर के तमाशे को देखकर हर्षित और दुःखी होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी संसार में जन्म−मृत्यु की लीला दिखाता है। अतः ईश्वर के इस विधान पर हर्षित अथवा दुःखी नहीं होना चाहिए।

मुकुर मांह परछांइ ज्यौं, पुहुप मधे ज्यों बास।
तैसउ श्री हरि बसै, हिरदै मधे रैदास॥
अर्थात् – जिस प्रकार दर्पण में परछाई और पुष्प में सुगंध का वास होता है, रैदास कहते हैं कि उसी प्रकार हृदय में ही श्रीहरि का निवास है।

गुरु ग्यांन दीपक दिया, बाती दइ जलाय।
रैदास हरि भगति कारनै, जनम मरन विलमाय॥
अर्थात् – सद्गुरु ने मुझे भक्ति रूपी बाती से युक्त ज्ञान का दीपक प्रदान किया। रैदास कहते हैं कि परमात्मा की भक्ति के कारण ही मैं जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो गया।

रैदास हमारो साइयां, राघव राम रहीम।
सभ ही राम को रूप है, केसो क्रिस्न करीम॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि राघव, रहीम, केशव, कृष्ण, करीम आदि में प्रभु राम का ही रूप झलकता है। वही प्रभु राम उनका आराध्य है।
जब सभ करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान।
रैदास प्रथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि जब सभी मनुष्यों के एक समान दो−दो हाथ−पैर, नेत्र और कान हैं तो हिंदू और मुसलमान कैसे एक−दूसरे से भिन्न हुए?
धन संचय दुख देत है, धन त्यागे सुख होय।
रैदास सीख गुरु देव की, धन मति जोरे कोय॥
अर्थात् – धन का सीमा से अधिक संचय दुख देता है। अधिक धन की कामना त्यागकर ही वास्तविक सुख की प्राप्ति होती है। अतः सभी गुरुओं की यही शिक्षा है कि कोई भी सीमा से अधिक धन का संचय न करे।
रैदास न पूजइ देहरा, अरु न मसजिद जाय।
जह−तंह ईस का बास है, तंह−तंह सीस नवाय॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि ईश्वर की पूजा करने के लिए न तो मैं मंदिर जाता हूँ और न ही मस्जिद। मैं वहीं सिर झुकाता हूँ जहाँ ईश्वर का निवास है।
जिह्वा भजै हरि नाम नित, हत्थ करहिं नित काम।
रैदास भए निहचिंत हम, मम चिंत करेंगे राम॥
अर्थात् – मैं अपनी वाणी से नित्य नाम-स्मरण और अपने हाथों से कर्म करता हूँ। रैदास कहते हैं कि इस प्रकार मैं सभी चिंताओं से निश्चिंत हो गया हूँ क्योंकि मेरी चिंता करने वाले तो प्रभु राम हैं।
सौ बरस लौं जगत मंहि, जीवत रहि करू काम।
रैदास करम ही धरम हैं, करम करहु निहकाम॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि मनुष्य को संसार में सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा के लिए निरंतर निष्काम कर्म करते रहना चाहिए। कर्म करना ही मनुष्य−धर्म है।
मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।
दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥
अर्थात् – न तो मुझे मस्जिद से घृणा है और न ही मंदिर से प्रेम है। रैदास कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि न तो मस्जिद में अल्लाह ही निवास करता है और नही मंदिर में राम का वास है।
माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
मारग छाड़ि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥
अर्थात् – ईश्वर को पाने के लिए माथे पर तिलक लगाना और माला जपना केवल संसार को ठगने का स्वांग है। प्रेम का मार्ग छोड़कर स्वांग करने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी। सच्चे प्रेम के बिना परमात्मा को पाना असंभव है।
हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति।
रैदास पूजइ उस राम कूं, जिह निरंतर प्रीति॥
अर्थात् – हिंदू मंदिरों में पूजा करने के लिए जाते हैं और मुसलमान ख़ुदा की इबादत करने के लिए मस्जिदों में जाते हैं। दोनों ही अज्ञानी हैं। दोनों को ही ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम नहीं है। रैदास कहते हैं कि मैं जिस राम की आराधना करता हूँ, उसके प्रति मेरी सच्ची प्रीति है।
मुसलमान सों दोस्ती, हिंदुअन सों कर प्रीत।
रैदास जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत॥
अर्थात् – हमें मुसलमान और हिंदुओं दोनों से समान रूप से दोस्ती और प्रेम करना चाहिए। दोनों के भीतर एक ही ईश्वर की ज्योति प्रकाशित हो रही है। सभी हमारे−अपने मित्र हैं।
प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।
सांचे सामी मिलन कूं, आनंद कह्यो न जाय॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि वे प्रेम−मार्ग रूपी पालकी में बैठकर अपने सच्चे स्वामी से मिलने के लिए चले हैं। उनसे मिलने की चाह का आनंद ही निर्वचनीय है, तो उनसे मिलकर आनंद की अनुभूति का तो कहना ही क्या!
रैदास इक ही बूंद सो, सब ही भयो वित्थार।
मुरखि हैं तो करत हैं, बरन अवरन विचार॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि यह सृष्टि एक ही बूँद का विस्तार है अर्थात् एक ही ईश्वर से सभी प्राणियों का विकास हुआ है; फिर भी जो लोग जात-कुजात का विचार अर्थात् जातिगत भेद−विचार करते हैं, वे नितांत मूर्ख हैं।
रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय।
पीर पैगंबर औलिया, कोए न कहइ समुझाय॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि जीव को मारकर भला ख़ुदा की प्राप्ति कैसे हो सकती है, यह बात कोई भी पीर, पैगंबर या औलिया किसी को क्यों नहीं समझाता?
रैदास ब्राह्मण मति पूजिए, जए होवै गुन हीन।
पूजिहिं चरन चंडाल के, जउ होवै गुन प्रवीन॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि उस ब्राह्मण को नहीं पूजना चाहिए जो गुणहीन हो। गुणहीन ब्राह्मण की अपेक्षा गुणवान चांडाल के चरण पूजना श्रेयस्कर है।
मंदिर मसजिद दोउ एक हैं इन मंह अंतर नाहि।
रैदास राम रहमान का, झगड़उ कोउ नाहि॥
अर्थात् – मंदिर और मस्जिद दोनों एक हैं। इनमें कोई ख़ास फ़र्क नहीं है। रैदास कहते हैं कि राम−रहमान का झगड़ा व्यर्थ है। दोनों धर्म−स्थलों में एक ही ईश्वर निवास करता है।
जो ख़ुदा पच्छिम बसै तौ पूरब बसत है राम।
रैदास सेवों जिह ठाकुर कूं, तिह का ठांव न नाम॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि यदि ख़ुदा पश्चिम में है तो राम पूरब दिशा में निवास करता है। किंतु मैं उस ईश्वर की पूजा करता हूँ जिसका न तो कोई स्थान है और न कोई नाम है।
रैदास सोई सूरा भला, जो लरै धरम के हेत।
अंग−अंग कटि भुंइ गिरै, तउ न छाड़ै खेत॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि वही शूरवीर श्रेष्ठ होता है जो धर्म की रक्षा के लिए लड़ते−लड़ते अपने अंग−प्रत्यंग कटकर युद्धभूमि में गिर जाने पर भी युद्धभूमि से पीठ नहीं दिखाता।
नीचं नीच कह मारहिं, जानत नाहिं नादान।
सभ का सिरजन हार है, रैदास एकै भगवान॥
अर्थात् – मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को छोटा समझकर उसे सताता है। रैदास कहते हैं कि नादान मनुष्य यह नहीं जानता कि सभी मनुष्यों को जन्म देने वाला एक ही ईश्वर है।
अंतर गति राँचै नहीं, बाहरि कथै उजास।
ते नर नरक हि जाहिगं, सति भाषै रैदास॥
अर्थात् – मनुष्य कितना अज्ञानी है! वह शरीर की बाहरी स्वच्छता और वेश−भूषा पर ध्यान देता है और मन की पवित्रता पर दृष्टि नहीं डालता। रैदास सत्य ही कहते हैं−ऐसे मनुष्य निश्चय ही नरक लोक जाएँगे।
देता रहै हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
रैदास खोजा नहं मिल सकइ, जौ लौ मन शैतान॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि मुल्ला चाहे लगातार हज़ार वर्षों तक अजान देता रहे किंतु जब तक उसके भीतर शैतान रहेगा, तब तक खोजने पर भी उसे ख़ुदा न मिल सकेगा।
साधु संगति पूरजी भइ, हौं वस्त लइ निरमोल।
सहज बल दिया लादि करि, चल्यो लहन पिव मोल॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि साधु−संगति के धन को मैंने अनमोल वस्तु के रूप में प्राप्त कर लिया है। इस सत्संग से प्राप्त चेतन शक्ति को अपने हृदय में समाहित करके मैं अपने पीव को प्राप्त करने चला हूँ।
राधो क्रिस्न करीम हरि, राम रहीम खुदाय।
रैदास मोरे मन बसहिं, कहु खोजहुं बन जाय॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि राधा, कृष्ण, करीम, हरि, राम, रहीम, ख़ुदा−सभी एक ही ईश्वर के रूप मेरे मन में निवास करते हैं। फिर भला इन्हें बाहर वन में क्यों खोजूँ!
ब घट मेरा साइयाँ, जलवा रह्यौ दिखाइ।
रैदास नगर मांहि, रमि रह्यौ, नेकहु न इत्त उत्त जाइ॥
अर्थात् – प्रत्येक शरीर में प्रभु का वास है। सभी जगह उसी का जलवा है। रैदास कहते हैं कि वह इस नगर रूपी मन में पूरी तरह रमा हुआ है। इससे बाहर वह बिल्कुल इधर−उधर नहीं जा सकता है।
रैदास स्रम करि खाइहिं, जौं लौं पार बसाय।
नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि जब तक सामर्थ्य हो, मनुष्य को ईमानदारी से कमाकर खाना चाहिए। जो मनुष्य ईमानदारी और शुद्ध भाव से कमाता है, वह कभी निष्फल नहीं जाता है।
रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच।
नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच॥
अर्थात् – जन्म के कारण कोई भी मनुष्य छोटा नहीं होता है। मनुष्य के तुच्छ कर्मों का पाप ही उसे छोटा बनाता है॥
रैदास मदुरा का पीजिए, जो चढ़ै उतराय।
नांव महारस पीजियै, जौ चढ़ै उतराय॥
अर्थात् – रैदास कहते हैं कि मदिरा का सेवन करने से क्या लाभ जिसका नशा चढ़ता है और शीघ्र ही उतर जाता है? इसकी जगह राम नाम रूपी महारस का पान करो। इसका नशा यदि एक बार चढ़ जाता है तो फिर कभी नहीं उतरता।
बेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्ही तउ चमार।
रैदास मानुष इक हइ, नाम धरै हइ चार॥
अर्थात् – सब मनुष्य एक समान हैं किंतु उसके चार नाम (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र) रख दिए हैं, जैसे वेद पढ़ने वाला मनुष्य पंडित (ब्राह्मण) और जूता गाँठने वाला मनुष्य चर्मकार (शूद्र) कहलाता है।
जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों कर कार।
राम मिलिहि घर आइ कर, कहि रैदास विचार॥
अर्थात् – हे मनुष्य! तू अपनी वाणी से ओंकार का जाप और हाथों से कर्म कर। रैदास कहते हैं कि प्रभु राम स्वयं तुझसे मिलने तेरे घर आएँगे।
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